जब कभी भी ज़िन्दगी की खोल कर देखी किताब |
सफ़हे - सफ़हे का दिखा कर ज़ख़्म तब रोई किताब ||
देख कर नाकामियाँ एसी मेरी तालीम की |
फेंक दी बच्चे ने मेरे एकदम अपनी किताब ||
फेल होने पर मेरा बच्चा जो रोया जार-जार |
मैंने पूछा क्या मियाँ तुमने पढ़ी भी थी किताब ?
जिसमें रक्खे थे किसी के ख़त हिफ़ाज़त से सभी |
वक़्त की दीमक ने कब की चाट ली सारी किताब ||
देखता हूँ जब कभी उलझा किताबों में मिले |
काम की होती नहीं कोई मगर उसकी किताब ||
ज़िन्दगी शायद सँवर जाती मेरी भी कुछ न कुछ |
खोल कर जो देखता माँ-बाप की अच्छी किताब ||
आप जिसको ढूंढते फिरते हो यूँ ही दर - ब - दर |
ज़िन्दगी है अस्ल में वो आपकी असली किताब ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
ख़त्म क्यों हो न पाई ग़रीबी ?
आज भी है ग़रीबी ग़रीबी ||
आपकी सादगी सादगी है |
सादगी है हमारी ग़रीबी ||
आदमी कुछ भी कर बैठता है |
जब कभी भी सताती ग़रीबी ||
उम्र से लग रहा है वो बूढ़ा |
ओढ़ उसने जो रक्खी ग़रीबी ||
बेटियों की तरफ़ देखता हूँ |
नोचती मुझको मेरी ग़रीबी ||
बात बढ़- बढ़ के सब बोलते हैं |
क्या किसी ने हटा दी ग़रीबी ?
मर गया वो ग़रीबी में आख़िर |
पर न मर पाई उसकी ग़रीबी ||
अपने अख़लाक़ से गिर न जाऊं |
इससे अच्छी है प्यारी ग़रीबी ||
काम आती सियासत में अक्सर |
ये हमारी तुम्हारी ग़रीबी ||
डा० सुरेन्द्र सैनी