Monday, 12 December 2011

हुस्न तुम्हारा


हुस्न  तुम्हारा   माशा  अल्लाह |
इश्क़  हमारा    माशा  अल्लाह ||

सुब्ह    हुआ खिड़की  से उनका |
ख़ूब   नज़ारा   माशा  अल्लाह ||

नींद हमें जब- जब    भी आयी |
ख्व़ाब तुम्हारा माशा  अल्लाह || 

बज़्म में आयी जब वो परी सी |
सबने   पुकारा माशा अल्लाह || 

आग    बबूला   होकर   उनका |
करना किनारा माशा अल्लाह ||

झील में  दिल की उतरा उनका |
आज  शिकारा माशा  अल्लाह || 

चाँद  से  मुखड़े  पर  ये  ग़ुस्सा |
एक   शरारा  माशा   अल्लाह || 

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 11 December 2011

उनमें बाक़ी हैं


उनमें  बाक़ी   हैं   शोखियाँ  अब  भी |
मुझ पे गिरती हैं बिजलियाँ अब भी ||

मेरे    कानों    को   गुदगुदा     जाएँ |
उनके   हाथों  की  चूड़ियाँ  अब  भी ||

रोज़   मिलते   हैं   बात   होती   है |
पर  दिलों  में  हैं दूरियाँ अब    भी ||

मांगते   हैं    जहेज़    में    इतना |
घर में बैठी  हैं  बेटियाँ  अब   भी ||

पेड़   नफ़रत   का   ये   पुराना  है |
दे  रहा  रोज़  तलख़ि्याँ अब  भी ||

सोचता   हूँ   कलाम   पु ख़्ता  हो |
रह ही जाती हैं ग़लतियाँ अब भी ||

प्यार   बेटी   का   भी   निराला  है |
मुझसे सुनती है लोरियाँ अब भी ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

  

Friday, 9 December 2011

ख्व़ाब में जब भी


ख्व़ाब  में  जब  भी  कभी आते हो तुम |
सच  में  मुझको  गुदगुदा जाते हो तुम ||

साज़ बज उठते हैं लय में  ख़ुद -ब -ख़ुद |
गीत   कोई   जब   कभी   गाते हो  तुम ||

जब   भी   आँखों   में   नमी   देखो  मेरी |
तिरछी चितवन से क्यूँ मुस्काते हो तुम || 

झट    से  पीछे   खींच   लेते  हो  क़दम |
हाथ   आगे    जब   मेरा  पाते हो  तुम || 

प्यार   के   मैं   भेजता  हूँ  जो  ख़ुतूत |
क्यूँ   सहेली  से  ही  पढ़वाते हो  तुम ?  

आपकी  हर  बात   में  तो  ना  ही  ना |
और  मुझसे  हाँ  ही  करवाते हो  तुम || 

वो    शरारत   से   भरी   बातें   सभी  |
मुझसे करके क्यूँ सितम ढाते हो तुम ? 

तुम   न  खाते   हो सुधरने की क़सम |
पर   सताने  की क़सम खाते हो तुम || 

मुझसे  चाहत  है  अगर  थोड़ी  बहुत |
यूँ   कभी  मुंह पर नहीं लाते हो तुम ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Wednesday, 7 December 2011

जहाँ में फ़क़त हम


जहाँ में फ़क़त हम  तुझे  अपना  माने |
नहीं  तो  बताओ  किसे  अपना  माने ?

किसी  की  निग़ाहें  मुझे   अपना  माने |
किसी  की  निग़ाहें  तुझे   अपना  माने ||

रही है ये मुश्किल किसे  अपना  माने ?
कहीं  तो  है  कोई  जिसे  अपना  माने ||

ज़माने   में   हैं   आज   इंसान  वो  भी |
नहीं कोई जिनका किसे अपना  माने ?

कोई  माने  इसको  कोई माने उसको |
मैं  मानू  उसे  तू  जिसे  अपना  माने ||

तुम्हारे  नगर  में  तुम्हारे  सिवा  सब |
बड़े  ही  अदब  से  मुझे  अपना  माने ||

ख़ुदा में यक़ीं हो  हमेशा  ही  जिसका |
ख़ुदा भी यक़ीनन  उसे अपना  माने ||

तू  माने  न  माने  ये  तेरी   है  मर्जी |
मगर दिल हमारा तुझे  अपना माने ||

तुम्हारा  हुआ  है  ये दिल तो कभी का |
कहो किस तरह हम इसे अपना माने ?

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 4 December 2011

छोड़िये अदाएं अब


छोड़िये    अदाएं   अब   हमसे    रूठ  जाने  की |
कुछ  नहीं  बची  हिम्मत  आपको  मनाने  की ||

पड़    गयी   गले   में अब   दुश्मनी  ज़माने  की |
शान अब तो बन जाओ दिल  के आशियाने की ||

दिल तो है बग़ावत पर मेरे   ये    नहीं  बस  में |
लग गयी लगन इसको तुमसे प्यार  पाने की ||

आसमाँ  में  हैं  बादल  ,बर्क़  है  ,तलातुम   है |
और  आपको  सूझी  कश्तियाँ     चलाने  की ||

मैं हूँ नासमझ  मुझको  चाहे  जो  सज़ा दे  दो |
मैंने जो हिमाकत की तुमसे दिल लगाने की ||

आशियाँ   बचाने   की   मैं   उधेड़बुन   में  हूँ |
आज है ख़बर  पक्की आँधियों के  आने  की ||

जान,दिल,जिगर तो सब  आपके  हवाले है |
अब कुछ ज़रुरत है मुझको  आज़माने की || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Thursday, 23 June 2011

सरल ग़ज़लें


जब  कभी  भी  ज़िन्दगी  की खोल कर देखी किताब |
सफ़हे - सफ़हे का दिखा कर ज़ख़्म  तब  रोई  किताब ||

देख   कर   नाकामियाँ    एसी    मेरी     तालीम    की |
फेंक    दी  बच्चे   ने   मेरे  एकदम  अपनी    किताब ||

फेल   होने   पर   मेरा   बच्चा   जो  रोया  जार-जार |
मैंने  पूछा  क्या  मियाँ  तुमने  पढ़ी  भी थी  किताब ?

जिसमें  रक्खे थे  किसी   के  ख़त  हिफ़ाज़त से सभी |
वक़्त  की  दीमक  ने कब की चाट ली सारी  किताब ||

देखता   हूँ  जब   कभी   उलझा   किताबों  में  मिले |
काम  की  होती  नहीं   कोई  मगर  उसकी  किताब ||

ज़िन्दगी  शायद  सँवर  जाती मेरी भी कुछ न कुछ |
खोल  कर  जो  देखता  माँ-बाप की अच्छी  किताब ||

आप  जिसको  ढूंढते  फिरते  हो यूँ ही दर - ब - दर |
ज़िन्दगी  है  अस्ल  में वो आपकी  असली  किताब ||

                                                                                   डा० सुरेन्द्र सैनी 
ख़त्म  क्यों  हो  न पाई ग़रीबी ?
आज   भी  है    ग़रीबी   ग़रीबी ||

आपकी     सादगी    सादगी   है |
सादगी   है    हमारी      ग़रीबी ||

आदमी कुछ   भी कर  बैठता है |
जब  कभी  भी    सताती  ग़रीबी ||

उम्र  से  लग  रहा   है  वो  बूढ़ा |
ओढ़  उसने  जो   रक्खी    ग़रीबी ||

बेटियों   की  तरफ़   देखता  हूँ |
नोचती    मुझको   मेरी  ग़रीबी ||

बात बढ़- बढ़ के सब  बोलते हैं |
क्या  किसी  ने हटा दी  ग़रीबी ?

मर  गया  वो  ग़रीबी में आख़िर |
पर  न  मर पाई उसकी  ग़रीबी ||

अपने अख़लाक़ से गिर न जाऊं |
इससे  अच्छी  है  प्यारी  ग़रीबी ||

काम आती सियासत में अक्सर |
ये     हमारी     तुम्हारी    ग़रीबी ||

                                                         डा० सुरेन्द्र सैनी